Saturday, August 13, 2011

नर हो, न निराश करो मन को


नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
- मैथिलीशरण गुप्त

7 comments:

Manish Khedawat said...

5v class mein ye kavita hua karti thi.
padhkar achha laga ! aabhar !
________________________________
बहना को देता आशीष नज़र आऊँ :)

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना..

निवेदिता श्रीवास्तव said...

बहुत प्रेरक रचना.......

प्रवीण पाण्डेय said...

प्यास बँधी है,
आस बँधी है।

Shalini kaushik said...

बहुत सार्थक व् प्रेरणादायी प्रस्तुति.आभार

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... बचपन में हमारे हिंदी के विषय में थी ये रचना ... मज़ा आ गया आज दुबारा पढ़ के ... शुक्रिया ...

Vaanbhatt said...

बचपन में कोर्स में थी यह कविता...बहुत ही प्रेरणादायक रचना है...