Wednesday, April 13, 2011

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
-निदा फ़ाज़ली

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह। आभार।

आनंद said...

waaaaaaaah vivek ji....ab lagta hai achh gazlen likhi hi nahi jaati....bahut achhi gazal agar kahin milti bhi hai to uska ek sher hi achha hota hai....khair abhar aapka bandhuvar !

arvind said...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
...bahut khoob.

Vivek Jain said...

thanks friends for your visit.
-Vivek

Amrita Tanmay said...

Aanand se bhar diya...aabhar.

संजय भास्‍कर said...

"ला-जवाब" जबर्दस्त!!